- अनुच्छेद 44 की भावना के अनुरूप नहीं है उत्तराखंड यू.सी.सी.विधेयक
देहरादून। हिन्दू विवाह, उत्तराधिकार अधिनियम, शरीयत एक्ट, संवैधानिक मूल अधिकारों के प्रावधानों के चलते नये कानूनी विवादों में फंस जायेगा कानून उत्तराखंड विधानसभा से पारित समान नागरिक संहिता उत्तराखंड 2024 के कानून बन जाने पर प्रदेश में लिव इन रिलेशन को बढ़ावा मिलेगा। इसके अतिरिक्त जनजातियों पर लागू न होने के चलते प्रदेश में भी संविधान के अनुच्छेद 44 की भावना ’’ एक देश एक कानून’’ के अनुरूप नहीं हैं। केन्द्र के कानूनों हिन्दू विवाह, उत्तराधिकार अधिनियम, शरीयत एक्ट तथा संवैधानिक मूल अधिकारों से असंगत प्रावधानों के चलते यह कानून नये कानूनी विवादों में फंस जायेगा। विवाह सम्बन्धी कानून सहित 44 कानूनी पुस्तकों के लेखक, पूर्व लाॅ लैक्चरर तथा सूचना अधिकार कार्यकर्ता एडवोकेट नदीम उद्दीन ने उत्तराखंड के समान नागरिक संहिता विधेयक पर टिप्पणी करते हुये यह आशंकायें व्यक्त की है। श्री नदीम ने बताया कि संहिता के भाग 3 में धारा 378 से 389 तक सहवासी संबंध (लिव इन रिलेशन) सम्बन्धी प्रावधान शामिल किये गये हैं। इसमें जहां ऐसे संबंधों को कानूनी मान्यता दे दी गयी हैैं, वहीं ऐसे संबंध में जन्मे बच्चों को वैध बच्चा मान लिया गया है तथा पुरूष साथी द्वारा छोड़ने पर महिला को भरण पोषण का अधिकार दे दिया गया है। संहिता में सभी धर्मों के लिये तलाक या विवाह विच्छेद को तो कठिन बना दिया गया है लेकिन लिव-इन रिलेशन में रहने वाला एक व्यक्ति भी धारा 384 के अन्तर्गत रजिस्ट्रार के समक्ष कथन प्रस्तुत करके संबंध कभी भी समाप्त कर सकता है जबकि दोनों की मर्जी से तलाक के लिये विवाह से कम से कम अठारह माह का इंतजार करना पड़ेगा और न्यायालय के चक्कर भी काटने पडें़गे। ऐसी अवस्था में युगल शादी के स्थान पर लिव इन रिलेशन में रहना पंसद करेंगे। जिसे प्रारंभ करना तथा समाप्त करना दोनों आसान हैं और इसमें सम्बन्ध समाप्त करने का कोई कारण भी नहीं बताना है। इससे भारतीय विवाह संस्था को नुकसान पहुंचेगा तथा ऐसे सम्बन्धों से जन्मे बच्चों का भविष्य भी खतरे में रहेगा।
उत्तराखंड 2024 विधेयक भारतीय संविधान के अनुच्छेद 44 की भावना के अनुरूप नहीं हैं क्योंकि राज्य से पास होने के चलते केवल विधानसभा की कानून बनाने की अधिकार सीमा उत्तराखंड राज्य क्षेत्र के अन्दर यह लागू हो सकता है, पूरे देश में नहीं। इसके अतिरिक्त इसकी धारा 2 के अनुसार अनुसूचित जनजाति तथा संविधान के भाग 21 (विशेष उपबंध) के अन्तर्गत संरक्षित समूहों पर भी यह लागू नहीं होगा। इसलिये अनुच्छेद 44 के देश के सभी नागरिकों के लिये एक समान कानून की भावना के अनुरूप नहीं है। श्री नदीम के अनुसार संहिता के जिन विषयों पर कानून बनाया गया है वह संविधान की समवर्ती सूची के विषय है जिस पर केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकारों दोनों को कानून बनाने का अधिकार है लेकिन अनुच्छे 254(1) के प्रावधानों के अनुसार संबंधित विषय पर संसद की विधि से असंगत राज्य विधान मंडल द्वारा पारित कानून शून्य होता है। संहिता से संबंधित विषयों पर हिन्दू विवाह अधिनियम, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम तथा शरीयत एक्ट सहित विभिन्न केन्द्र सरकार के कानूनों व समय-समय पर संसद द्वारा संशोधित काननों के चलते इस विषयों पर यह संहिता कानूनी विवादों में फंसी रहेगी। यद्यपि विवाह, तलाक रजिस्ट्रेशन तथा लिव इन रिलेशन से सम्बन्धी संसद का जब तक कोई कानून पारित नहीं हो जाता, तब तक यह राज्य में लागू हो सकंेंगे। इसके अतिरिक्त इसके विभिन्न प्रावधनों के संवैधानिक मूल अधिकारों से असंगत होने के चलते भी काननूी विवादों का विषय रहेगा। श्री नदीम ने बताया कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 245 के अन्तर्गत राज्य का विधान मंडल संपूर्ण राज्य या उसके किसी भाग के लिये कानून बना सकता है लेेकिन वह राज्य के निवासियों पर अन्य राज्य क्षेत्रों के देश से बाहर किये जाने वाले कार्यों पर कोई कानून लागू नहीं कर सकता है। जबकि संहिता की 1(3) के अन्तर्गत राज्य के बाहर रहने वाले उत्तराखंड के निवासियों पर भी संहिता का लागू किया गया है। धारा 3(3) के अन्तर्गत निवासी के अन्तर्गत स्थायी निवासी ठहराये जाने का पात्र, राज्य सरकार/संस्था का स्थायी कर्मचारी, राज्य के क्षेत्र के भीतर कार्यरत केन्द्र सरकार या उसके उपक्रम/संस्था का स्थायी कर्मचारी, राज्य में कम से कम एक वर्ष से निवास कर रहा व्यक्ति तथा राज्य में लागू राज्य या केन्द्र सरकार की योजनाओं का लाभार्थी शामिल है।
राज्य के निवासी की पहली बार दी गयी कानूनी परिभाषा से उसके आधार पर केवल एक वर्ष से निवास करने वाला दूसरे राज्य का व्यक्ति भी राज्य की नौकरियों पर पात्रता का दावा प्रस्तुत करेगा। इससे एक नये विवाद को जन्म मिलेगा। जबकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 16(3) में राज्य की नौकरियांें में केवल निवास की शर्त लगायी जा सकती है, न कि स्थायी निवास या मूल निवास की लेकिन अभी तक उत्तराखंड निवासी की विधिक परिभाषा न होने के चलते इसके स्थान पर स्थायी निवास प्रमाण पत्र धारकों को लाभ दिया जा रहा है।
श्री नदीम ने यह भी आशंका व्यक्त की है कि सभी वर्गों की तलाक का निर्णय न्यायालय द्वारा करने तथा किसी भी परिस्थिति में एक से अधिक विवाह दण्डनीय अपराध बनाने के चलते न्यायालयों में कार्यांे का और भार बढ़ेगा जिससे वर्तमान में तलाक के लिये न्यायालय के चक्कर काट रहे लोगों को अपनी जवानी के और कुछ साल इसके इंतजार में बर्बाद करने पड़ेंगे। अच्छा यह होता कि सभी वर्गों को लिव इन रिलेशन समाप्त करने के प्रावधान के समान अपनी मर्जी से कुछ शर्तों के अन्तर्गत तलाक न्यायलय से बाहर देनेे की अनुमति दे दी जाती। इसके अतिरिक्त विशेष परिस्थितियों में सभी वर्गों को एक से अधिक विवाह करने की अनुमति दे दी जाती। इसके लिये समान नागरिक संहिता विशेषज्ञ समिति के समक्ष् ाश्री नदीम द्वारा विस्तृत सुझाव भी रखे गये थे।